Friday, July 13, 2012

मौन की भाषा

आज कुछ कहना चाहती हूँ 
हे प्रिय ! मैं तुमसे खुलकर 
सुनोगे तुम मुझे या नहीं ?
जानती हूँ, तुम मुझे सुनोगे
जब बैठी थी मैं बागीचे में
घास की बिछी हरी चादर पर
तुम दूर से चलके आए थे
मेरी पीठ तुम्हारी ओर थी
तुम चुपके से पास बैठ गए
अपना हाथ मेरे हाथ के उपर
तुमने रखा था स्नेहिल, धीरे से
तुम्हारा वो अनुपम स्पर्श मुझे
कितना कुछ कह गया था तब
धीरे से तुम मेरे और करीब आए
मेरी आँखों में आँखें डाल कर
प्यार से निहारा था तुमने मुझे
हम दोनो के दिलों की धड़कनें
कितनी तेज़ी से चलने लगी थी
कुछ ना कह के भी बहुत कुछ
कह गए थे हम दोनो चुप रह के
ये मौन की भाषा कितनी बोली थी
इन निमलित विशाल नैनों ने तब
दो हृदय मानों मूक भाषा में
सब कह कह कर शांत हो रहे हों
आज भी वह चित्र कहीं रखा है मैंने
सहेजकर अपने दिल की संदूक में
शायद मैं कह पाऊँ वह शब्दों से
एक दिन जो कहा था नैनों ने
हे !मेरे प्रिय, मनभावन तुमसे 

6 comments:

  1. सहेजकर अपने दिल की संदूक में
    शायद मैं कह पाऊँ वह शब्दों से
    एक दिन जो कहा था नैनों ने
    हे !मेरे प्रिय, मनभावन तुमसे ,,,,

    बहुत सुंदर प्रस्तुति,,,,
    ज्योति जी,,,कही तो पोस्ट पर आइये,,,,,

    RECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...

    ReplyDelete
  2. बहुत ख़ूब!
    आपकी यह सुन्दर प्रवृष्टि कल दिनांक 16-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-942 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर भाव हैं !
    मौन भी है
    शब्द भी हैं
    कहीं लिखे
    हैं नहीं
    कहीं बोले
    हैं नहीं
    पर पता हैं
    क्या हैं
    और
    कहाँ हैं ।

    ReplyDelete
  4. जब मिल जाता किसी को, सपनों का मनमीत।
    तब अधरों पर थिरकते, प्रीत-प्यार के गीत।।

    ReplyDelete
  5. बहुत बहुत सुन्दर कोमल अहसास
    सुन्दर भाव लिए रचना:-)

    ReplyDelete
  6. aap sab ki abhari hoon meri rachna ko pasand kiya aurcharcha manch par bhi rakhi

    ReplyDelete