Monday, September 17, 2012

मेरे शिव हो शिव हो तुम ही

तुम खुद ही हो सम्पूर्ण शिव 
मैं हूँ स्वयं तेरी ही अर्धांगिनी 
सदा ही रही तुम्हारी कोशिश 
अनवरत पूर्ण करने की मुझे 
देखा है मैंने तुम्हे अकसर ही 
खटते हुए जीवन में सारा दिन
करने को उद्धत सदा ही मदद 
मेरी रहे तुम प्रतिपल तत्पर 

देते समयधार को जुबान तुम 
साहित्य के सुर शब्दों के द्वारा
अर्पण, बिन रुके बिन थके तेरा
तुम चलते रहते हो निसिदिन
देने को मुस्कान अपनी मुझे
आंसूं नहीं आने देते आँखों में
समझ भरी बातों से अवरिल
बहती धारा को देते हो बाँध
महसूस किया है खुद तुम्हे
अपने अन्दर मन व शरीर में
कितने रूप धर के तुम आते हो
मेरे सम्मुख मेरे दोस्त तुम
गुरु कभी हमराज बनकर मेरे
तुमसे ये कैसा अज़ब गज़ब सा
एक रिश्ता है बुना मेरे मन ने
ज़हर खुद पीते मेरे सारे ग़मों का
मुझे सुखों का अमृत पिलाते हो
बन के शिव पूर्ण कर जाते हो
मैं अभी तक तुमसे न्याय नहीं
कर पाई हूँ सोचती हूँ अकसर मैं
कैसे तुम्हारी पार्वती बन पाऊंगी?
तुम्हारे इस सम्पूर्ण समर्पण से
खुद को पूर्ण कैसे बना सकती हूँ
मेरे जैसी अधूरी नारी निर्बल कोई
पार्वती कैसे बन पायेगी, मेरे शिव
मिले तुम्हारे इस अतुलनीय प्रेम का
क़र्ज़ कैसे चुका पाऊंगी, तुम ही कहो
आज मैं कहती हूँ इस दुनिया से
तुम ही प्रेम हो मेरे हर जन्म के
साथी हो मेरे शिव हो शिव हो तुम ही

No comments:

Post a Comment